1जुलाई, 1949 में जन्मे 'मुर्दहिया'कार दलित चिंतक प्रो. तुलसी राम नहीं रहे। 13 फरवरी, 2015 को अस्पताल में उन्होंने आख़िरी साँसें लीं। यह ख़बर हिंदी जगत और हिन्दुस्तान की वाम-जनवादी ताक़तों के लिए स्तब्धकारी है। हालांकि हम सब जानते थे कि यह ख़बर किसी भी समय आ सकती है क्योंकि वे लंबे समय से बीमार थे। हफ़्ते में दो बार उन्हें डायलिसिस पर जाना होता था। इसके बावजूद वे बौद्धिक चेतना से सांप्रदायिक दक्षिणपंथ के उभार के ख़िलाफ़, अपनी शारीरिक अशक्तता से जूझते हुए, लगातार हमें सचेत करते रहे।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के सेंटर फॉर रशियन एण्ड सेंट्रल एशियन स्टडीज में प्रोफेसर के पद पर काबिज तुलसी राम विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन तथा रशियन मामलों के विशेषज्ञ थे, साथ ही अंतरराष्ट्रीय बौद्ध आंदोलन, दलित आंदोलन और हिंदी साहित्य में भी उनकी गहरी पैठ थी। कार्ल मार्क्स, माहात्मा बुद्ध और डॉ. अंबेडकर को अपने पथप्रदर्शक विचारक माननेवाले तुलसी राम ने हिंदी और अंग्रेज़ी, दोनों में खूब लिखा। 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' शीर्षक से छपी उनकी आत्मकथा के दोनों खंड हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि के रूप में मान्य हैं। मणिकर्णिका बनारस का वह घाट है, जहां मुर्दे को बांधकर अंतिम संस्कार के लिए इस आस में लाया जाता है, कि यहां से उसे सीधे स्वर्ग में स्थान मिलेगा। वैसे बनारस के बारे में एक और धारणा प्रचलित है, कि यहां कोई भूखा नहीं रहता पर यहां आते ही तुलसी राम को यह मान्यता मिथ्या लगी, वे स्वयं लिखते हैं कि उन्हें यहां एक-दो दिन की भूख नहीं बल्कि लगातार पूरे नौ दिनों तक भूख सहने पर मजबूर होना पड़ा। गंगा के घाट में भूखों की लंबी कतार देखकर उनके मन से अचानक आवाज़ आई कि 'गंगा पापी का पाप तो धो सकती है पर भूख को नहीं।' प्रो. तुलसी राम की आत्मकथा में उनके द्वारा प्रयुक्त 'मैं' एक व्यक्ति नहीं बल्कि हर पल बुद्ध के दर्शन से पूर्णतः प्रभावित एक अंबेडकरवादी है, जिसके हर निर्णय और कार्य की पृष्ठभूमि इसी दर्शन से प्रभावित है, यह किताब अन्य आत्मकथाओं की भांति व्यक्तिगत पीड़ा नहीं बल्कि तत्कालीन समाज का संपूर्ण विवरण है। दरअसल यह हिंदू समाज की त्रासदियों को उजागर करने वाला दस्तावेज है जिनमें एक ओर दलितों का खदबदाता अतीत है तो दूसरी ओर हिंदू समाज की नंगी तस्वीर भी। ये आत्मकथाएं बार-बार यही सवाल पूछती हैं कि दलितों को मानवीय अधिकारों से वंचित क्यों रखा गयाॽ जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद भी इन्हें भरपेट रोटी क्यों नहीं मिलीॽ खाने को मिला भी तो पशुओं के गोबर से निकला दाना या मरे हुए पशुओं का मांस। एकदम फटेहाल जिंदगी की कारुणिक हृदय विदारक दास्तां को ये आत्मकथाएं समाज की त्रासदी के रूप में बार-बार सामने लाती हैं।
अश्वघोष नामक प्रसिद्ध बुद्धिस्ट एवं साहित्यिक पत्रिका के संपादक तथा विदेशी मामलों पर बौद्धिक हस्तक्षेप करने वाले प्रो. तुलसी राम की कृतियां-'अंगोला का मुक्ति संघर्ष', 'सी.आई.ए. : राजनीतिक विध्वंस का अमरीकी हथियार', 'द हिस्ट्री ऑफ कम्युनिस्ट मूवमेंट इन ईरान', 'पर्सिया टू ईरान (वन स्टेप फारवर्ड टू स्टेप्स बैक)' तथा 'आइडियोलॉजी इन सोवियत-ईरान रिलेशंस (लेनिन टू स्तालिन) रचना संसार में शामिल हैं। दलित समुदाय में जन्मे डॉ. तुलसी राम अस्मितावादी राजनीति के ख़िलाफ़ थे और मार्क्सवाद-अंबेडकरवाद का साझा मोर्चा बननेवाली वाम-जनवादी राजनीति के हिमायती थे। हिंदी समाज को अभी उनसे बहुत कुछ जानने-समझने की उम्मीद थी। मात्र 65 वर्ष की अवस्था में उनका दुनिया को अलविदा कह देना संकटों से घिरे इस दौर में बहुत बड़ी क्षति है। पिछले दिनों वे वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में आए थे तो डॉ. अमित विश्वास ने उनसे दलित मुद्दों सहित विभिन्न मसलों पर लंबी बातचीत की थी। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश -
आप दलित चिंतक के रूप में जाने जाते हैं, दलितों और गैर-दलितों दोनों के द्वारा आज दलित साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है। संवेदना के स्तर पर दोनों के लेखन को आप किस रूप में देखते हैंॽ
देखिये, भारतीय साहित्य में समाज के हर वर्ग और हर तबके का चित्रण होना जरूरी है क्योंकि किसी भी देश का समाज वहॉं के कुछ वर्गों के सहारे नहीं चलता है, उसमें सभी वर्गों की भागीदारी होनी चाहिए तभी देश का संपूर्ण विकास संभव है। भारतीय दलित साहित्य को देश के वैकल्पिक सामाजिक इतिहास के रूप में देखा जाना चाहिए। इतिहास में यह अहम हिस्सा लंबे समय से गायब था। साहित्य समाज की सच्ची तस्वीर दिखाने की कोशिश करता है तो दलित साहित्य को भी भारतीय साहित्य में वही जगह मिलनी चाहिए जिस तरह और भाषाओं के साहित्य को मिली हुई है। दलित साहित्य की जब तक सही व्याख्या नहीं होगी तब तक भारतीय साहित्य विकास की प्रक्रिया पर सही ढंग से नहीं चल पाएगा क्योंकि दलित साहित्य ही एक ऐसी कड़ी है जो कि समाज के उस पक्ष को पेश करती है जिससे आज भी हमारे समाज के कुछ वर्ग अनजान हैं। दलित साहित्य में दलित अपने आप में विशिष्ट इसलिए भी हैं क्योंकि शिक्षा से वंचित रहने के बावजूद भी दलित समाज ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है उदाहरण के तौर पर चित्रकारी और लोकनाट्य के द्वारा उन्होंने अपनी वेदना को व्यक्त किया है, जिसमें उनके विद्रोह का स्वर भी दिखलाई पड़ता है, भले ही वे स्वर शांत हो, उसमें कोई आवाज़ न हो लेकिन अपने ऊपर हुए शोषण के खिलाफ जो चीख दिखाई देती है वे समाज के उन तमाम वर्गों को कटघरे में खड़ा करते हैं जिन्होंने हमेशा से पिछड़े वर्गों को समाज से बहिष्कृत किया है। दरअसल दलित साहित्य हिंदू समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था के खिलाफ मानवता के पक्ष में लिखा जाने वाला साहित्य है। जो भी व्यक्ति वर्ण व्यवस्था के खिलाफ लिखता है वो दलित साहित्य है। आज कुछ उग्रपंथी दलित जिनकी संख्या साहित्य में बहुत कम हैं वे गैर दलित द्वारा लिखे गये साहित्य को एक सिरे से खारिज कर दे रहे हैं जोकि गलत हैं। संवेदना के तौर पर इतना ही कहा जा सकता है कि जिनका घाव है वही दर्द का सही बखान कर सकता है।
क्या आप मानते हैं कि दलित साहित्य में भी जातीय भावना प्रबल होती दिख रही है, इस बारे में आपकी रायॽ
अगर दलित भी जातिवाद करते हैं तो इसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। वर्ण-व्यवस्था का जो धार्मिक आधार है और उसे जो अंधविश्वास से जोड़ा गया है, अशिक्षित होने के कारण इसके सबसे अधिक शिकार दलित ही हुए हैं। जाति-व्यवस्था ईश्वर ने बनाया है और पिछले जन्म में किये गए कर्म से आपकी जाति निर्धारित होती है, जैसी बातों का जनता में बहुत ही प्रचार हुआ है। दलित भी इनके प्रभाव में आ जाता है और सोचता है कि जो उससे नीचे हैं उसने पूर्व जन्म में उससे भी खराब कर्म किये होंगे। जिसके कारण वह उसको हेय की दृष्टि से देखता है। इसके लिए दोषी दलित न होकर वर्ण व्यवस्था ही है। अब जरा सोचिये कि सवर्ण पूरे दलित समुदाय के लिए कितने घातक साबित हो रहे होंगे। जाति व्यवस्था इतनी क्रूर है कि वह स्वयं दलित को दलित के विरोध में खडा़ कर देती है। आज दलित साहित्य में भी जाति व्यवस्था अपने चरम पर है। दलित साहित्य को जानने-समझने के लिए हमें बौद्ध धर्म को जानना-समझना होगा क्योंकि बौद्ध धर्म से ही दलित साहित्य का विकास हुआ है, उसके बिना दलित साहित्य का कोई आधार नहीं है। जो लोग दलित साहित्य को बौद्ध धर्म से अलग मानते हैं दरअसल वे एक भ्रम में जीते आ रहे हैं। बौद्ध धर्म को अपनाने से ही जातीय भावना से बचा जा सकता है। इसलिए जरूरी है कि आज दलित साहित्य को बौद्ध धर्म की कसौटी पर परखा जाए क्योंकि बौद्ध धर्म समानता के दर्शन को संदर्भित करता है। चूंकि आज हम देख रहे हैं कि दलित वर्ग में भी कहीं न कहीं जाति व्यवस्था का समावेश होता जा रहा है, एक दलित वर्ग अपने आप को दूसरे दलित वर्ग से श्रेष्ठ मान रहा है, अगर ऐसा ही चलता रहा तो लड़ाई आज दलित वर्ग की सवर्ण वर्ग से है वो लड़ाई पिछड़ी जातियों की आपस में होगी।
और दलितों की अभिव्यक्ति को अक्सर दबा दिया जाता है, इस संदर्भ में आपकी टिप्पणीॽ
हम खबरों में पढ़ते आ रहे हैं कि सवर्णों ने दलितों को जला दिया, दलित महिला के साथ बलात्कार कर हत्या कर दी गई, डायन बताकर उन्हें निर्वस्त्र गांव-गांव घुमाया गया, दलितों को मंदिरों में प्रवेश से वर्जित किया गया आदि आदि। फिर भी हम अपनी आवाज नहीं उठा पाते हैं, आखिर क्योंॽ दरअसल आज दलित साहित्य में नेतृत्व का प्रश्न खड़ा हो गया है। भारतीय साहित्य में दलित साहित्य के प्रभाव को देखते हुए कुछ लोग दलित साहित्य की क्लोनिंग कर रहे हैं। आधुनिक भारतीय दलित साहित्य की नींव बाबा साहेब अंबेडकर ने दलितों को शिक्षा का अधिकार दिलाकर रखी थी। डॉ. अंबेडकर केवल दलित या पिछड़े वर्ग के हितों के लिए ही नहीं सोचते थे बल्कि वो समाज की उस व्यवस्था के खिलाफ थे जो कि आदमी-आदमी में भेद करके एक को हाशिए पर डाल देता है और आगे बढ़ने का अवसर उससे छीन लेता है। हमारा साहित्य नए समाज को रचने के लिए विद्रोह का प्रतीक था। यह विद्रोह है अपने अधिकारों को हासिल करने का। और यह सुशिक्षित समाज ही कर सकता है। ऐसा समाज अपना दुख, दर्द विभिन्न मंचों से अभिव्यक्त कर सकता है। मजदूर और दलितों पर कोई ध्यान नहीं देता क्योंकि वह अपने आपको अभिव्यक्त नहीं कर सकता। समाज में स्थापित कुछ संगठन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आघात पहुंचा रहे हैं, ऐसी स्थिति में अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल हमारे सामने बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है। आज दलित साहित्य भी राजनीति से प्रभावित होकर लिखा जाने लगा है। यहां हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि जब कोई उच्च जाति का व्यक्ति दलितों पर किये जाने वाले अत्याचार पर लिखता या बोलता है, तो समाज सुधारक कहलाता है, किंतु जब वही बात कोई दलित लिखता या बोलता है तो उसे जातिवादी मान लिया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि मुश्किल घड़ी में लोग भगवान को याद करते हैं, आपके जीवन में दुखों के अंबार रहे हैं क्या ऐसी परिस्थिति में भी आपको भगवान की याद नहीं आईॽ
मैं कार्ल मार्क्स और भगवान बुद्ध से प्रभावित रहा हूँ। मार्क्स और बुद्ध के दर्शन का ही संयुक्त असर था जिससे कि मैं ईश्वर और आत्मा की मान्यता से पूरी तरह मुक्त हो पाया। आज भगवान के नाम पर धर्म का गोरखधंधा चल रहा है। देवनगरी बनारस के प्रसिद्ध घाटों और मंदिरों में पंडों के पाखंड को देखिये, घिनौने कारोबार को परखिये कि कैसे कृष्ण भक्ति का बखान करते हुए तथा भूत उतारने के बहाने ये महिलाओं का शोषण का शिकार किया करते हैं। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी सवर्णवादी ताकतें दलितों को अपने अधिकारों से वंचित रखती हैं। देश में हिंदुत्ववादी ताकतों का विकास दलितों पर अत्याचार का मुख्य कारण है। आज भी दलितों पर वैदिक युग के अत्याचार हो रहे हैं। आज दुनिया में करीब 350 धर्म प्रचलन में हैं। इनमें से केवल हिंदू धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसकी सभी देवी-देवता हथियारों से लैस हैं। जिस धर्म के देवी-देवता हथियारों से लैस हों उनके अनुयायियों के बारे में आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए अपने को खुद अनीश्वरवादी मानता हूँ। संकट के क्षण में भी भगवान याद नहीं आया।
आप मार्क्सवादी पार्टी से भी जुड़े रहे हैं, क्या यह सच है कि जातिगत कारणों से रूस प्रवास से आपको रोका गया थाॽ
मार्क्सवाद में डूबते हुए हमने स्वयं को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए पूरे तन-मन से समर्पित कर दिया था और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मार्क्सवादी छात्र नेता के रूप में अपने को जोड़ा। एक बार जब एक पर्चे को लिखते समय उसके अंत में डॉ.अंबेडकर के नाम का उल्लेख किया तो इसे एक मार्क्सवादी नेता ने हटवा दिया। कुछ दिनों बाद जब हमने बनारस के अपराधी पंडों के खिलाफ प्रदर्शन करने की सोची तो उन्हें यह कहकर रोक दिया गया कि 'क्यों गरीब ब्राहमण की रोजी-रोटी के पीछे पड़े हैं'। एक बार पार्टी की तरफ से प्रायोजित तरीके से रूस प्रवास से यह कहकर रोका गया कि देश के मार्क्सवादी आंदोलन को आपकी ज़रूरत है, और आपका स्थान कोई और नहीं ले सकता। लेकिन बाद में पता चला कि हमें सिर्फ जाति के कारणों से वंचित किया गया था। इन सब प्रकरणों से मैं बहुत आहत हुआ, सकारात्मकता में जीने वाला व्यक्ति हूँ। यदि कार्ल मार्क्स, बुद्ध को जानते तो जाति भेदभाव के बारे में भी ज़रूर लिखते।
आप अंतरराष्ट्र्रीय मामलों के विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं, क्या आप मानते हैं कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में खास करके इस्लामिक देशों में लोकतंत्र की परिभाषा को अमेरिका गढ़ रहा हैॽ
आज डेमोक्रसी मोबोक्रेसी में बदल गया है। अमेरिका अपनी नीतियों को मनवाने के लिए डेमोक्रेसी के नाम पर जनता की भीड़ को सड़क पर उतार देता है। जहां-जहां उनके समर्थक सत्ता में आ जाते हैं उसे ही वे डेमोक्रेसी कहते हैं। आज डेमोक्रेसी से तात्पर्य हो गया है कि हम अमेरिका की विदेश नीति को मानें। लीबिया में कई जनहित कार्यक्रम चलाए जा रहे थे वहां तो जेल नाम की संस्था को भी हटा दिया गया था क्योंकि उनका कहना था कि हमारे यहां कोई क्राइम नहीं है लेकिन मीडिया ने उसे नोटिस में नहीं लिया। मीडिया ने इसलिए उनकी बात को दबा दिया क्योंकि लीबिया हमेशा अमेरिका का विरोध करता था। इस्लामिक देशों में अमेरिका तेल के कुंओं पर कब्जा करना चाहता है। अमेरिका, डिस्टेबिलाईजेशन थ्योरी के तहत सीआईए के माध्यम से जहां भी कोलोनियल विरोधी आंदोलन चल रहा था, उसे अलोकतांत्रिक करार देकर लोकतंत्र की बहाली के नाम पर सुनियोजित तरीके से लोगों को सड़क पर उतार देता है। इसमें वह बड़े पैमाने पर विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों का सहारा लेता है। अमेरिका का कहना है कि हम इस्लामिक फंडामेंटलिस्टों के विरोध में लड़ रहे हैं। सैमुअल हटिंगटन अपनी पुस्तक 'क्लैश ऑफ सिविलाईजेशंस' में लिखते हैं कि यूरोप अमेरिका को पश्चिमी सिविलाईजेशन कहता है तथा दूसरों की सिविलाईजेशन को धर्म से जोड़ता है। वे मानते हैं कि पश्चिम ही क्या कहें, पूरी सिविलाईजेशन के खिलाफ इस्लामिक सिविलाईजेशन है। इसलिए हमें इस्लामिक सिविलाईजेशन का विरोध करना चाहिए। वे तो मानते हैं कि अगर दुश्मन नहीं है तो पैदा करो। इसी नीति पर पश्चिम के देश सारी दुनिया पर आधिपत्य कायम करना चाहते हैं। शांतिप्रिय देश इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, अमेरिकी नीतियों को नहीं मानते थे। अमेरिका ने कहा कि इराक के पास 'विपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन' है, इस नाम से अमेरिका ने इराक पर हमला किया, तकरीबन 20 लाख लोग मारे गए, अब अमेरिकन सरकार वहां प्राकृतिक तेल निकाल रही है। आप देखेंगे कि अमेरिका के निशाने पर उत्तर कोरिया व इराक दोनों ही थे, चूंकि उत्तर कोरिया में प्राकृतिक तेल नहीं था इसलिए अमेरिका ने इराक पर हमला कर तेल क्षेत्र को अपने कब्जे में कर लिया। अमेरिका ने 2004 ई. में लोकतंत्र की बहाली के नाम पर जार्जिया पर हस्तक्षेप किया और एक अमेरिकी नागरिक को वहां सत्ता में बिठा दिया।
भूमंडलीकृत भारत के समाज में किस प्रकार का परिवर्तन या विचलन आप देख रहे हैंॽ
अमेरिका डिस्टेबिलाईजेशन थ्योरी के तहत औपनिवेशिक सत्ता स्थापित करना चाहता है। ग्लोबलाईजेशन के तहत फ्रीट्रेड के नाम पर पश्चिमी देशों ने अपनी स्कीमों को दुनिया पर थोपना शुरू किया और उसका परिणाम ये हुआ कि, जो समस्याएं उनकी हों वे पूरी दुनिया के लिए एक विकट समस्या के रूप में उभरें। अब जैसे टेरोरिज्म के बारे में अमेरिका ने जो बातें दी, जब आतंकवादियों ने वहां धावा बोला तो टेरोरिज्म अमेरिका से निकलकर पूरी दुनिया में छा गया और तमाम प्रमुख कोई ऐसा देश नहीं है जहां कि टेरोरिज्म की समस्या न हो। अब यहां ये कहना समीचीन होगा कि जो पश्चिमी देशों का आंतरिक मामला था वो निकलकर अन्य देशों का आंतरिक मामला बन गया। भूमंडलीकरण के बाद अमेरिकी नीति का प्रभाव भारतीय समाज पर गहरे रूप से पड़ रहा है, इसके लिए अमेरिका मीडिया का सहारा लेता है।
क्या साम्राज्यवाद और वैश्विक पूंजीवाद से जुड़कर भारतीय समाज की जातिगत, धर्मगत और संस्कृतिगत जंजीरें टूट सकी हैंॽ
नहीं, ऐसा नहीं हैं। हां परिवर्तन जरूर आया है लेकिन सोशल डिस्क्रिमिनेशन जिसे कहते हैं उसका नया रूप हमारे सामने आया और जातिवादी भावना से प्रेरित होकर खास करके जहां तक जातिवाद का सवाल है, पहले जाति आदमी के व्यक्तिगत सोच में होती थी, एक व्यक्ति डिस्क्रिमिनेशन इसलिए करता था कि जातिवाद धर्म से जुड़ा हुआ था। परिवर्तन यह हुआ है कि अब जातिवाद पूरी तरह से राजनीति में हावी हो गया है। विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवार होते हैं, जातीय समीकरण के अनुसार ही वे चुनाव जीत पाते हैं। कहने का मतलब यह है कि जातिवाद, डेमोक्रेटिक सिस्टम में मिलकर उसी के आधार पर उम्मीदवार को जितवा रहा है। जातिवाद और जाति के नाम पर वोट मांगा जाता है और उसी तरह से धर्म के नाम पर भी अब वोट मांगा जाने लगा है। भारत का जो पोलीटिकल सिस्टम है वह जातीय सिस्टम में बदल गया है और इस तरह से जातिवाद राजनैतिक कारणों की वजह से अब यह और भी ज्यादा मजबूत हो रहा है। यह कास्ट सिस्टम जितना ही मजबूत होता है उतने ही दलित, आदिवासियों की असुरक्षाएं बढ़ती जाती हैं और इसलिए तमाम परिवर्तनों के बाद, तमाम जो स्कीमें हैं, उसके बावजूद, ये जो जातिवाद राजनीति में तीव्रता से पनप रहा है उसका परिणाम भविष्य में बहुत खतरनाक होने जा रहा है।
क्या महाशक्तियों का दलाल देश होने के अलावा भारत कभी पहचान बना पाएगाॽ
जो स्थिति इस समय है भारत की। भारत की पहचान बहुत अच्छी हो सकती थी एक इंडिपेनडेन्ट नेशन के रूप में। सोवियत यूनियन टूटने के बाद भारत पश्चिमी देशों के दलाल सा बनता जा रहा है। खास करके वर्तमान सरकार अमेरिकी खेमे में सीधे चली गई है। जो आर्थिक संकट अमेरिका में आया था वह भारत में भी आ गया। अमेरिकी खेमे में वही जा पाता है जो अमेरिका की विदेशनीति से सहमत हों। अमेरिका की विदेश नीति ग्लोबल डोमीनेशन की है, उसी के चलते उन्होंने अफगानिस्तान पर हमला किया अभी वह लीबिया में गद्दाफी को हटवाया। भारत नॉन एलाइंग की नीति को छोड़कर अब अमेरिकी खेमे में है और इसीलिए भारत की बदनामी हुई दुनिया के देशों में। अन्यथा एक समय भारत थर्ड वर्ल्ड कंट्री के लीडर के रूप में उभरा था वह बात अब खत्म होती दिख रही है।
पूरानी व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्र के नवोदय में अक्सर देखा गया है कि पूराने देश ढहते ही चले जाते हैं जैसे मगध, यूनान, मिश्र आदि, भारतीय संदर्भ में इसकी विवेचना करेंॽ
जहां तक भारत की हस्ती का सवाल है, यह जाति-व्यवस्था के चलते कभी स्थापित हो नहीं पाएगी सिवाय कुछ धर्मान्धता व कर्मकांडों के। हमें गौरव बहुत होता रहा है भारत का, लेकिन पूरा इतिहास बताता है कि भारत कभी भी इंडिपेनडेन्ट स्थिति में खड़ा नहीं हो पाया था। ये जो खड़ा हो पा रहा है ये मॉडर्न, आजादी के बाद ही हो पाया है। हमारे यहां आर्य बाहर से हजारों साल पहले आए और यहां से चले गए। यहां की स्थानीय संस्कृति, जो मूलत: आदिवासी समाज की थी उसको नष्ट करके कर्मकांडी व्यवस्था स्थापित किया, जिसके बाद आप देखेंगे कि कर्मकांडी व्यवस्था डिस्क्रिमिनेशन करने लगी। जिस देश के समाज में धार्मिक कर्मकांड हावी हो जाते हैं उस देश में अंधविश्वास इतना बढ़ जाता है कि वहां सामाजिक भेदभाव पनपना लाजिमी है। भारत में आर्यों के जमाने से और बाद में जब धीरे-धीरे सभ्यता आने लगी तो देखिये कि इस्लामिक विचारधारा को फैलाने के नाम पर जो लोग आते रहे भारत में, वह पूरे कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, दो-चार सौ घोड़ों को लेकर आते थे, सारी वीरता की कहानी और सारा आत्मगौरव के नाम पर वे यहां जम गए। कारण यह था कि राजस्थान के क्षत्रिय लड़ाकू थे आपस में लड़ते थे, रियासतें भी आपस में लड़ती थीं। उसी राजस्थान से होते हुए वे मध्य एशिया में आते-जाते रहे और उनके रहते पूरा भारत को कब्जा कर लिया। कहने का मतलब है कि पूरा मध्य एशिया के हमलावर तो भारत को कब्जा किये रहा, उसके बाद अंग्रेज आए उन्होंने दो सौ साल तक शासन किया। इतिहास बताता है कि भारत की हस्ती को बढ़ने न देने में जाति व्यवस्था प्रमुख कारण रही। इसके चलते भारत कभी अपनी हस्ती कायम नहीं कर सका और जब से नया भारतीय संविधान लागू हुआ, संवैधानिक दर्जा दिया गया। भारत का विकास देखिये, दुनिया में उभर सकता था, लेकिन जब से यह पश्चिमी खेमे में गया है इसकी हस्ती मिटती जा रही है और अमेरिकन डॉमीनेशन सब जगह हावी हो रहा है।
दलित लेखकों, विचारकों की चरम अभिव्यक्ति आत्मकथा होती है और इसके बाद वे चूक जाते हैं ' मूर्दहिया' लिखने के बाद आप क्या महसूस करते हैंॽ
देखिये, आत्मकथाएं लिखी नहीं जाती, बल्कि वो रोती हैं, क्योंकि जो व्यक्ति अपने जीवन के कड़वे अनुभवों को जब शब्दों में बांधता है तो पता नहीं उसका मन कितनी बार उन यादों को याद करके रोता है। ऐसा अनुभव मेरा भी रहा है। मेरी आत्मकथा 'मुर्दहिया' यानी गांव का वह कोना जहां मुर्दे फूंके जाते हैं; 'मुर्दहिया' यानी गांव का वह हिस्सा जहां मरे हुए जानवरों के चमड़े उतारे जाते हैं। 'मुर्दहिया' मेरे जीवन का प्रमुख अंग है और मेरा पूरा जीवन ही 'मुर्दहिया' है। आत्मकथा लेखन किसी व्यक्ति का अंतिम लेखन होता है। अंतिम लेखन कहने मतलब यह होता है कि अब वे कुछ न लिखें अर्थात् कुछ लिख लें, उसके बाद आत्मकथा लिखना चाहिए। जो लोग आत्मकथा लेखन से ही अपने लेखन की शुरूआत करते हैं वे गलती करते हैं लेकिन ये आरोप मैं सही नहीं मानता हूं कि आत्मकथा लिखने के बाद लोग चूक जाते हैं या नहीं लिखते हैं। असली बात यह है कि आत्मकथा लिखने के पहले उन्होंने कितना लिखा है, उसको लोग अंडरमाइंड या फिर आत्मकथा को केंद्र में रखकर लोग सोचते हैं कि इसके बाद कुछ नहीं लिखा। कोई भी चाहे वह दलित हो या गैर दलित हो, अक्सर ये देखा जाता है कि जब कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में बहुत कुछ कर चुके होते हैं, पढ़ लेते हैं, लिख चुके होते हैं और अंत में आत्मकथा लिखते हैं। इसीलिए जब आत्मकथाएं अंत में लिखी जाती हैं तो वह अंतिम रचना हो जाती है और बाद में यह आरोप लगाना गलत है कि आत्मकथा लिखने के बाद लोग कुछ लिखते ही नहीं हैं। सवाल ये है कि आत्मकथा लिखने के पहले उन्होंने कितना लिखा है उसको ध्यान में नहीं रखा जाता है। जहां तक मेरा व्यक्तिगत सवाल है आत्मकथा मुर्दहिया लिखने का, कभी मेरा कोई ईरादा नहीं था, इसका श्रेय तदभव के संपादक अखिलेश को जाता है। बाद में इसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। दूसरा पार्ट मणिकर्णिका लिख रहा हूँ, क्योंकि पब्लिशर्स व पाठकों की तरफ से दबाव पड़ रहा है। आत्मकथा लेखन जो होता है वह दलित समाज की अभिव्यक्ति है। किसी एक दलित लेखक को जिस तरह की समस्याओं से मुकाबला करना पड़ता है उसी तरह का मुकाबला हर दलित को करना पड़ता है। इसलिए दलित आत्मकथा में पूरे समाज का प्रतिबिंब परिलक्षित होता है। दलित आत्मकथाओं में सबसे महत्वपूर्ण जो बात है वह सामाजिकता और सोशल हिस्ट्री है इसीलिए आत्मकथाओं को सोशल हिस्ट्री माना जाता है और वह है भी।
हिंदी में आज दलित-रचनाशीलता से अधिक दलित आलोचना ध्यान खींचती हैंॽ रचनाशीलता के लिए आवश्यक शिल्प और विविधता की कमी अक्सर दलित लेखकों की रचनाओं में देखने को मिलती है, इस संदर्भ में आपकी टिप्पणी।
अगर हम दलित आलेचना की बात करें तो यह बहुत दयनीय स्थिति में है। आत्मकथा लेखन के कारण ही दलित साहित्य को लोकप्रियता हासिल हो पायी है। अक्सर दलित लेखक भोगे हुए यथार्थ को वाणी देते हुए आत्मकथा से ही लेखन की शुरूआत करते हैं। आत्मकथा का संबंध उम्र से होता है, इसे युवावस्था में लिखने से यह अधूरी रहती है और इसमें अपरिपक्वता भी दिखता है। दलित लेखकों को अपनी शुरूआत ही आत्मकथा से करने से बचना चाहिए। आलोचना लेखन के लिए बहुत ही विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता होती है। दुर्भाग्य से दलितों की परिस्थ्िातियां ऐसी हैं कि उन्हें पढ़ने का पूरा अवसर नहीं मिल पाता है। आज नौकरी देने में किसने उन्हें दुत्कार दिया, पक्षपात किया, इसी को आधार बनाकर लिखना शुरू करते हैं। इसीलिए वे ब्राह्मणवाद का विरोध करने की बजाय ब्राह्मणों का विरोध करने लगते हैं। दलित लेखकों में ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल सिंह चौहान जैसे रचनाकार रैशनल होकर लिख रहे हैं। इसके अलावा भी कुछ दलित लेखक हैं जो परिवर्तनकामी चेतना को विस्तारित करने में अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं।